आज कल हम सब कैसे हो गए हैं, कभी सोचा है क्या? हर कोई अपनी सहुलियत के लिए हर किसी में बदलाव करने पर तुला है। हमें हर वो बात, हरकत सही लगती जो हमारे नजरिए में सही है पर क्या हमारा वो नजरिया सही है ? प्रश्न विवादास्पद है।
तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था, तुम्हें ये करना चाहिए, तुम्हें उनके साथ नहीं घूमना चाहिए, ये ऐसा करो, बातें कम करो, ऐसे कपड़े पहने, वो नशा करता है या करती है, शराब, सिगरेट पीता है या पीती है, या कल की ही बात ले लो कि कुछ दिन तक तुम कम बोल रही ही थी तो तुमपे टीचर वाली फीलिंग आ रही थी सोचो, ये तेरे पापा को नहीं पसंद, ऐसा करो, वैसा करो, ये मत करो वो मत करो, क्यों भई।
एक हद तक किसी के लिए कुछ करना सही है वो आपका उनके लिए सम्मान दर्शाता है, पर कुछ आपकी भी खासियत होंगी, आपकी भी ख्वाहिशें, उम्मीदें होंगी , जिनको पूरा करके आपको आपका होना महसूस होता है।
कभी कभी मन में ख्याल आता है कि मैं ही क्यों किसी के लिए बदलाव करूं, हम ही क्यों दूसरों की उम्मीदों का बोझ सर पे लिए घूमें, हमारी इच्छा के मुताबिक कोई कितना और क्या कर रहा है, क्यों ये सोचने की बात नहीं है क्या।
किसी से थोड़ा ज्यादा बोलना, दोस्ती करना , नजदीकियां बढ़ाना, मोज मस्ती पसंद होना, इतना खराब होता है क्या?
आपके साथ क्या कभी ऐसा हुआ है की कोई पसंद है तो उसे आप अपनाना नहीं चाहते हैं, अगर दिमाग में कुछ ख्याल आए तो उसे भागना चाहते हैं, जितना सरल होने किस कोशिश कर रहे हैं, उतना ही असमंजस में फंसते चले जा रहे हैं, किसी को कुछ कहना चाहते हैं तो कह नहीं पाते हैं, और ऐसा हो क्यों रहा हैं , क्या कभी इसका जवाब ढूंढने की कोशिश की , की बस एक ख्याल आया और चला गया , आपने इसका जवाब ढूंढने की कोशिश इसलिए नहीं की क्योंकि आप दूसरों की आशाओं का बोझ लिए घूम रहे हैं , क्योंकि आप जानते हैं आपके दृष्टिकोण को समझना आसान नहीं होगा , सामने वाला अपनी सुविधा , आराम को छोड़ कर ऐसा कुछ नहीं करेगा और न करने देगा , इसलिए आप चीज़ों को वैसे ही रहने देती हो और कुछ नया करने का विचार छोड़ देते हो। पर ये कब तक चलने वाला है।
हमारी सोसायटी ऐसी क्यों है, वो खुद के अलावा हर किसी को अपने मतलब के लिए बदलाव लाना चाहती है, वो ये क्यों नहीं सोचती है कि सामने वाले की भी अपनी सोच होगी, उसको भी अच्छा लगता होगा, उसकी भी अपनी पर्सनैलिटी है, पर वो आत्म संतुष्टि के लिए कुछ भी नहीं करेगी।
क्यों हम कुछ चीज़ों को वैसे नहीं रहने देते जैसे वो हैं , हर चीज़ को अपनी अनुसार ढालना इतना जरूरी होता है क्या?
कभी कभी हालात ऐसे हो जाते हैं, दूसरों को संतुष्ट करते करते की आपको अपने पर से विश्वास ही उठ जाता है । व्यक्ति को इतना आत्म-संदेह मुख्य रूप से मिलता है, की वो खुद पर से इतना आत्मविश्वास खो देता है कि समझ ही नहीं आता कि उसको क्या चाहिए। और ऐसी घटनाओं से जैसे तैसे बहार निकलो और कभी कुछ जीवन अच्छा होता है , कुछ अनोखा होता है , वो होता है जिसकी कभी आशा नहीं की थी ,तो उसे भी इंसान संदेह की दृष्टि से देखने लगता है , ये मेरे साथ ही क्यों हो रहा है , ये कोई छल तो नहीं , कोई आपके जीवन में आ रहा है , आपको , आपके अंदाज़ को पसंद कर रहा है तो लगता है की हमारे भी हो सकता है , किसी ने पसंद किया तो क्यों किया।
क्या दिखावा ही एक मात्र उपाय रह गया है , जो आप हो वो न होकर वो दिखायें जो आप नहीं हो , वो बनने की कोशिश करना जो दूसरा चाहता है , घरवाले चाहते है , समाज चाहता है ,
कभी कभी अपने मन का करना क्या इतना बुरा होता है , वो करना जिससे उसे ख़ुशी मिलती हो , और कब तक हमें दूसरों के अनुसार चलना होगा , वो समय कब आएगा जब आप वो कर पाए जो आप करना चाहते हो , बिना किसी की परवाह किये। लोग क्या सोचेंगे ये सोचते सोचते ज़िन्दगी निकल गयी , न हमारा सोचना कम हुआ , न वो समाज की बातों को ढूंढ पाना।
इस दौड़ भाग भरी ज़िन्दगी में , प्रतिस्पर्धी जीवन में , हर किसी के बारे में सोचना , उनको संतुष्ट करना ये आप नहीं कर सकते हैं ये मानना पड़ेगा और समझना पड़ेगा , आप न खुद को और न किसी को पूरी तरह से संतुष्ट कर सकते हो , हर किसी की अपेक्षाओं में खड़ा नहीं उतर सकते हो। हर किसी को ये पता होता या नहीं पता होता की उसे क्या करना है , पर आपको ये पता जरूर होना चाहिए की आपको क्या नहीं करना है, कम से कम आप उसे करने की होड़ से तो बाहर हो जायेंगे और रास्ता की धुन्ध थोड़ी सी साफ़ होगी।
bhut gehre shabd h…..
Kuch toh log khenge
logon ka kaam h khna
Chodo bekar ki baaton ko
Bit na jaye ye ……