तो आज की मेरी चर्चा का विषय है दूसरों को अपने अनुसार ढालने की चाह।
कब तक हम यूं ही अपनी संतुष्टि के लिए, खुद को झूठा दिलासा देने के लिए दूसरों को बांधे रखेंगे , अपने अनुसार किसी को ढालने की कोशिश करेंगे, और इतना सब करके कोई कितना आपसे दिल से जुड़ा रहेगा, और कब तक?
क्या कोई जवाब है किसी के पास इसका?
वो रिश्ता सम्मान का तो रहेगा, पर ये सोचकर की बड़े हैं उनके आदेश का निरादर नहीं कर सकते हैं, उनका अपमान नहीं कर सकते हैं, और जो वो बोलेंगे आप करेंगे जरूर, भले ही उसे करने का आपका दिल न कर रहा हो पर फिर भी।
लेकिन क्या वो हमेशा की तरह आपसे दिल से जुड़ पाएगा , या वो बस साथ रहने की कोशिश मात्र करेगा, कभी खुशी से रह नहीं पाएगा और ये सब क्या वो बड़े समझ पाएंगे ?
हर कोई अपना एक व्यक्तिव लेकर चलता है, चाहे वो अच्छा है बुरा है, किसी को पसंद आने वाला है, कोई नापसंद करने वाला है, पर सवाल ये है कि आप खुद के होने से खुश होते हैं क्या, आप अपना व्यक्तित्व सबके सामने खुल कर रखते हैं या नहीं।
मेरे मन में एक ख्याल आज ये आ रहा था कि हमारे लिए किसी के साथ वो बर्ताव और वो फैसले लेना ,वो सब करना ज्यादा आसान होता है जो हमारे साथ हुआ है, चाहे वो अच्छा हो या बुरा, जिससे सामने वाला ज्यादा प्रभावित होता है, उससे हमें ज्यादा आत्म संतुष्टि मिलती है?
या वो करने की कोशिश करना जो सामने वाले के लिए और उसके अनुसार भी हो, उस पर वो सब न थोपकर, अपनी आशाओं, निराशाओं का बोझ न डालकर वो सब करना जिससे आपका अपना कोई आपसे किसी जिम्मेदारी से न जुड़ कर बल्कि आपसे दिल से जुड़े, उससे ज्यादा आत्म संतुष्टि मिलती है।
एक उदाहरण के तौर पर, जैसे हमने सभी सीरियल में, वही संकीर्ण सोच वाले सीरियल देखे, या अपने जीवन में भी देखे कि एक औरत जब अपने ससुराल जाती है तो वो सब सहती है, सब काम करती है , उसकी सास डायन बनी उसके सर पे नाचती है, ओर जो सब उसके साथ बुरा हुआ वो अपनी बहु के साथ करती है और ये सिलसिला चलता रहता है और जिसके कारण अभी शायद किसी भी लड़की के लिए सास की छवि कोई ज्यादा अच्छी नहीं होगी जब तक वो ये रिश्ता अनुभव न कर ले,
काश ये सिलसिला उस ही दिन रुक जाता , वो महिला अपनी बहू के साथ वो सब न करती जो उसने सहा है, अपनी सारी निराशाओं का गुब्बार उस मासूम पे न निकालती और उसे उतने ही प्रेम के साथ रखती तो उससे उसे ज्यादा आत्मसंतुष्टि न मिलती।
हम कब तक ये कोशिश करते रहेंगे कि हमारे अनुसार हर चीज चलती रहे, चाहे वो आपके बच्चे हों, समाज , पर समाज ऐसा है जहां आप हार मान लेते हैं वो वहां आप उसके अनुसार चलते हैं, जो नहीं होना चाहिए।
हर कोई किसी न किसी से, किसी न किसी उम्मीद से जरूर जुड़ा हुआ है, किसी से उम्मीद लगाना गलत नहीं है, लेकिन क्या केवल किसी उम्मीद के कारण जुड़ना सही है, उसे आप यूं ही नहीं अपना सकते हैं क्या, मैं मानती हूं माता पिता , बड़े हमारा अच्छा ही सोचते हैं, तो इसका मतलब ये है कि वो न देखे कि बच्चा खुद के लिए क्या चाहते है उसे असल में खुशी किस चीज से मिल रही है, उसकी अपनी राय क्या है, वो क्या चाहते है?
साधारणतः माता पिता और बच्चों में लगभग 20 से 30 साल का अंतर तो होता ही होगा, आजकल जहां हर दूसरे पल चीज़ें बदल रही है, तो वहां इतने साल क्या कुछ नहीं बदला होगा, हालात, माहौल, विचार, खान पान , जरूरतें और भी बहुत कुछ।
और बच्चा जब आज के माहौल का है तो आप कैसे अपने 40 साल पुरानी प्रथा, सोच को अपने बच्चे पर लागू कर सकते हैं,
आप कब तक ऐसी उम्मीद करते रहेंगे कि जैसा हम चाह रहे हैं वैसा ही हो।
जनरेशन गैप भी कोई चीज है ,
पहले तक जहां आपकी शादी ऐसे घर में हो जाती थी, ऐसे आदमी के साथ हो जाती थी जिसे आपने पहले कभी देखा ही नहीं, न कोई मुलाकात , तो तब अपने के लिए बोलना, अपनी इच्छाओं को बताना कभी किया ही नहीं था, कभी किसी को करते देख ही नहीं, तो सब देख देखी में शादी जैसा कदम उठा लेते थे। उसके बाद क्या होता था, क्या हुआ था , उसके गवाह वो और उनके बच्चे जरूर होंगे, किसी की किस्मत अच्छी रही तो अच्छा जीवनसाथी मिला, समझदार , समझने वाला, पर जिन्हें नहीं मिला तो बस वही क्लेश, आज सही कल फिर वही।
अब इतने साल बाद जब हर कोई अपने फैसले लेने के काबिल हो गया है, अपनी इच्छाओं को जाहिर खुल के कर सकता है, जो खुद के लिए सही लगता है वो कर सकता है , खुद के लिए जीना भी सीख गया है, तो वहां आप ये सब नहीं कर सकते हैं।
आप दूसरों की बातों से हमेशा सहमत हो ये हो नहीं सकता, और आपकी बातों से दूसरा सहमत हो ये क्यों जरूरी है?
हम कब तक खुद के नज़रिए से दूसरों को सही गलत का तमगा देते रहेंगे, हम भी तो गलत हो सकते हैं।
आपके अनुसार सब काम हो रहा है तो ठीक है , और अगर वैसा नहीं हुआ तो बस आरोप प्रत्यारोप शुरू कर देंगे , की वो इसे कैसे कर सकते हैं, ये तुम्हारी गलती है, ऐसा नहीं होना चाहिए था, और बेतुकी बातों को सही साबित करने की जद्दोजहत की जाएगी और दूसरों की उन गलतियों को सामने रखा जाएगा जो नाजाने कितने वक्त पहले घटित हुई होगी, तो ऐसा कब तक चलेगा ।
और हमेशा हमें दूसरों के अनुसार ही जीना होगा क्या? खुद के अनुसार जीने लगोगे तो लोगों को खटकोगे। लेकिन आपको अपने लिए जीना सीखना पड़ेगा, किसी बोझ के बिना जीना सीखना पड़ेगा, जो बिल्कुल भी गलत नहीं है।
कोशिश यही है आगे आने वाले समय में हम वो बनके दिखाए जो हम किसी से चाहते थे पर वो नहीं मिला , तो आगे के समय में आप बेहतर और बहादुर ही बनकर निकलोगे और निखरोगे।
अगर आपके बड़े आपको समझ नहीं पा रहे तो सुनिश्चित करें कि आप आगे जो भी करेंगे ये सोचे बिना (कि अगर आपके मन को समझा नहीं गया, वो परवाह नहीं दिखाई गई है आपकी राय के लिए) तो आप वो सब आगे दूसरों के साथ नहीं करेंगे, आप दूसरों को समझने का प्रयास जरूर करेंगे।
अब वो राय अपनी अपनी हो सकती है , पर ये तो होगा कि आपने एक मौका खुद को भी दिया और दूसरे को भी। क्या पता आप और बेहतर तरीके से सोच पाएं और फैसले ले पाएं।
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